एक सवाल अबूझा सा
हिमांशु जुल्लाह
भेजा था तुमको फ़िर से एक बार वहां
अनचाही चाहत की एक नादान उम्मीद के साथ
देकर तुमको मेरे दोनों हाथ जो हिस्सा थे मेरा
कल तक और आज तुम उनके मालिक हो बेशक
साथ ही बख़्शी तुम्हें वही ताक़त और हिम्मत
जिससे मैंने सात दिन में पूरी दुनिया बना डाली
जिसमें तुम भी थे सबसे बेहतरीन सबसे अनोखे
और उस गुमां में न जाने क्यों मैंने हिस्सा मेरी
पाक रूह का ख़ुद से तुम्हारे नाम कर दिया
और आज तक उस मंजर को याद भर करके
बोझिल थकी आखें भर आती है मेरी भी जब
देखता हूँ फ़िर किसी ने चंद सिक्कों की खातिर
फ़िर से रूह को मेरी बदरूह करके नीलाम किया है
सोया नहीं हूँ उस रोज़ से अबूझा सा जेहन में
उठ खड़ा होता है सवाल फ़िर से वही बार बार
जब उस बड़े शहर के चौराहे पर कत्ल करके फैंकी हुई
रूह की लाशों के ढेर पर पड़ी एक बदनाम रूह ज़ख्मी सी
आख़िरी साँसों में पूछ बैठी वोह जवाब जानती थी मगर
क्या ईमान की ज़िंदगी जीना वाकई इतना मुश्किल है